नव-उदारवादियों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि मानव की प्रगति में, उनकी आस्था कम होती जा रही है। उदारवादियों की अपेक्षा, नव-उदारवादी प्रगति तथा सहयोग के विषय में बहुत कम आशावादी हैं। परन्तु, इसका यह अर्थ भी नहीं है कि वे यथार्थवादियों तथा नव-यथार्थवादियों (देखें इकाई एक) की भांति निराशावादी हैं। एक पृथक श्रेणी के रूप में नव-उदारवाद का अर्थ युद्धोत्तर उदारवादी विद्वानों से है। केवल आशावादिता को छोड़कर यह मूल उदारवादियों के विचारों से आम तौर पर सहमत हैं। द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व अधिकांश उदारवादियों का विश्वास था कि मानव 'स्वतंत्रता का विकास हो रहा था, चाहे उसकी गति धीमी ही थी। परन्तु, युद्ध के पश्चात विद्वानों की नई पीढी ने प्रगति-सम्बंधी उदारवादी धारणा के प्रति अपनी वचनबद्धता व्यक्त करने में हिचकिचाहट का प्रमाण दिया। नई पीढ़ी के उदारवादियों में आशावादिता कम होने के अनेक कारण थे। जैसा कि ज़ैचर और मैथ्यू का कहना है, “उदारवादी (नव-उदारवादी) यह नहीं चाहते हैं कि उन्हें, दो युद्धों के मंध्यांतर के अनेक उदारवादियों की भांति आदर्शवादी कहा जाए; इस (बीसवीं) शताब्दी की अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं (दो विश्व युद्ध तथा शीत युद्ध सहित) ने उनकी आशावादिता के बारे में संकोच में डाल दिया, तथा, समकालीन समाज विज्ञान के आदर्शों के अनुसार, अनेक व्याख्या करने में अधिक संतुष्ट करने लगे.....”|
शैक्षणिक विश्व में, नव-उदारवाद का अर्थ नव-उदारवादी संस्थात्मकता से लिया जाता है। या फिर अब
उसे संस्थात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है। परन्तु, नीतिगत
विश्व में नव-उदारवाद का अलग ही अर्थ लगाया जाता है। विदेश नीति के संदर्भ में,
नव-उदारवादी उपागम मुक्त व्यापार, अथवा मुक्त बाज़ार,
को प्रोत्साहन देते हैं; तथा वे पाश्चात्य
लोकतान्त्रिक मूल्यों और उनकी संस्थाओं का प्रचार करते हैं। इस विचारधारा से
प्रेरणा लेकर अधिकांश पश्चिमी उदार लोकतांत्रिक देशों ने संयुक्त राज्य अमेरिका का,
लोकतांत्रिक समुदाय तथा पूँजीवादी राष्ट्र-राज्यों के “विस्तार'
के कार्य में समर्थन किया। नव-उदारवाद का मुख्य प्रेरणा स्रोत यह
विश्वास है कि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् स्थापित वित्तीय तथा कार्यात्मकवाद
संस्थाएँ समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। यह भी तर्क दिया जाता है कि इन वित्तीय और
राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना, और उनका स्थायित्व, उन नीति-निर्धारकों के द्वारा सुनिश्चित किया जा रहा है जिन्होंने
नव-उदारवाद या यथार्थवाद अथवा नव-यथार्थवाद की पूर्वमान्यताओं को अंगीकार किया।
परन्तु, अनेक
विद्वान उदारवाद की इन पूर्वमान्यताओं को स्वीकार नहीं करते। जैसा कि स्टीवेन लेमी
ने 2001 में लिखा था, “वास्तव में,
नव-उदारवादी विदेश नीतियाँ लोकतान्त्रिक शांति, मुक्त व्यापार तथा मुक्त द्वार के आदर्शों के प्रति वचनबद्ध प्रतीत नहीं
होतीं। राष्ट्रीय हितों को, नैतिकता तथा सार्वभौमिक आदर्शों
के ऊपर' प्राथमिकूता दी जाती है, और
परम्परावादी यथार्थवादी इस बात से भयभीत हैं कि, आर्थिक
हितों को भूराजनीति पर प्राथमिकता दी जाती है।”
युद्वोत्तर उदारवाद, अथवा नव-उदारवाद को मौटे तौर पर चार विविध उप-विचारधाराओं में विभाजित
किया जाता है। वे हैं: संस्थागत उदारवाद, समाजशास्त्रीय
उदारवाद गणतन्त्रतावाद उदारवाद तथा पारस्परिक निर्भरता-
उदारवाद। इस इकाई में हम जिन महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का अध्ययन कर
रहे हैं उनको समझाने के लिए इन चारों विचारों का विवेचन करना आवश्यक प्रतीत होता
है। परन्तु, हम इन विचारों के केवल उन्हीं पक्षों तक स्वयं को
सीमित करेंगे जो इस इकाई से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं।
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1 Comments
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